अर्थशास्त्र संसाधनों के अनुकूलतम दोहन से संबंधित विषय है। तकनीकी जितनी बेहतर होती जाएगी, संसाधनों के दोहन की सक्षमता उतनी ही बेहतर होती जाएगी। प्रत्येक व्यक्ति यदि वैज्ञानिक सोच, तकनीकी उपयोग, उत्पादकता उन्नयन पर केंद्रित हो तो दुनिया खुद-ब-खुद बेहतर हो जाती है। अंधधर्मिकता, जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद जैसी समस्याएं खुद ही समाप्त होने लगती है। यह तभी होगा जब विज्ञानवाद एक जनान्दोलन बन जाए। वैज्ञानिक सोच का महत्व सर्वोपरि हो जाए। इसकी शुरुआत विद्यालयों से ही हो सकती है। अटल इनोवेशन मिशन को इसी संदर्भ मे देखे जाने की जरूरत है। प्रौद्योगिकी का उपयोग सिर्फ सभ्य और खुला समाज बनाने सीमित नहीं है बल्कि भारत की आबादी को मानव सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन की चुनौतियाँ, आंतरिक सुरक्षा, राष्ट्रीय सैन्य सुरक्षा जैसे मुद्दों के लिए भी तकनीकी पर भारी निवेश की आवश्यकता है।
भारत का शोध और विकास (R&D) पर सरकारी व्यय जीडीपी के 0.6-07% के मध्य पिछले दो दशकों से स्थिर रहा है। साथ ही इस सरकारी व्यय का 60% हिस्सा परमाणु ऊर्जा, पृथ्वी विज्ञान और प्रौद्योगिकी और जैवप्रौद्योगिकी जैसी विज्ञान की सरकारी एजेंसियों को मिला है। वहीं आईसीएमआर का प्रतिशत बहुत काम था। वर्तमान में स्वास्थ्य संबंधी अनुसंधान की आवश्यकता बहुत ज्यादा है। कोरोना महामारी ने इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है। भारत में R&D में निजी क्षेत्रक भागीदारी बहुत कम है।
दूसरे देशों की तुलना की जाए तो अमेरिका अपने जीडीपी का 2.8%, चीन-2.1%, साउथ कोरिया-4.2%, इजराइल-4.3%, R&D पर खर्च करता है। वैश्विक R&D कंपनियों मे चीन की 306 कंपनियां हैं लेकिन भारत की सिर्फ 26 कंपनियां हैं। इन 26 में से भी 19 दवा, ऑटोमोबाइल और सॉफ्टवेयर से संबंधित हैं। भारत का आरंभिक R&D निवेश का पैटर्न अन्य पूर्वी एशियाई देशों चीन, जापान, और साउथ कोरिया की तरह ही है ,लेकिन जब ये देश धनी हुए तो इन्होंने R&D पर व्यय बढ़ा दिया ,लेकिन भारत में ऐसा नही हुआ। अमेरिका में STEM(साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग,मैथमेटिक्स) से पीएचडी करने वाले छात्रों में भारत की संख्या चीन की संख्या से आधे से भी कम है। पिछले कुछ दशकों में भारत में पीएचडी करने वाले छात्रों की संख्या मे काफी बढ़ोतरी हुई है लेकिन यह वैश्विक तुलना में काफी कम है। भारत विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा पेटेंट फ़ाइलिंग करने वाला देश है लेकिन प्रति व्यक्ति पेटेंट के हिसाब से यह काफी पीछे है।
भारत में विश्वविद्यालयों की R&D में कोई विशेष भूमिका नहीं है। ज्यादातर विश्वविद्यालयों का शैक्षणिक माहौल भी दूषित है जो वैज्ञानिक मिजाज पैदा करने में बाधक है। इसके साथ ही 1950 के दशक में अनुसंधान वित्त पोषण का जो पैटर्न विकसित किया गया वह विशेष विभागों के माध्यम से विशेष संस्थाओं की ओर था। इसलिए विश्वविद्यालयों में अनुसंधान और नहीं बढ़ पाया। वहीं दूसरी ओर भारत में R&D में महिलों की भूमिका न के बराबर है।
बढ़ती आय के साथ देश में R&D अगर नहीं बढ़ पाया तो विश्व के साथ भारत प्रतियोगिता नहीं कर पाएगा। स्कूली स्तर पर गणित और बोध कौशल को बढ़ावा देना होगा। नवोन्मेषी प्रेरित अनुसंधान को बढ़ावा देना होगा। निजी क्षेत्रक और राज्य सरकारों को R&D में अपना खर्च बढ़ाना होगा। राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं को विश्वविद्यालयों से जोड़ना होगा। विश्वविद्यालयों में नए ज्ञान का वातावरण विकसित करना होगा।
भारत में कई नए R&D के राष्ट्रीय मिशन चलाए जा रहे हैं जैसे डार्क मैटर, जीनोमिक्स(बायो बैंक), ऊर्जा भंडारण प्रणाली, साइबर फिजिकल प्रणाली, गणित और कृषि संबंधी राष्ट्रीय मिशन। अंतरिक्ष के क्षेत्र में इसरो ने पिछले कुछ दशकों मे काफी अच्छा काम किया है। भारत के एक लाख से ज्यादा पीएचडी धारक विदेशों में रह कर काम कर रहे हैं। सिर्फ अमेरिका में 91 हजार से ज्यादा हैं। अमेरिका में भारत के रहने वाले इंजीनियर और वैज्ञानिकों की संख्या लगभग 3 करोड़ के आस-पास है। इनका हमे लाभ उठाना चाहिए। पश्चिमी देशों में प्रवासी विरुद्ध जो माहौल बन रहा है उसका भारत को फायदा उठाना चाहिए। लेकिन अभी वापस आए लोगों की संख्या बहुत कम है। 2012-2017 के मध्य लगभग 700 लोग ही वापस आए हैं। देखना होगा 2022 के बजट में R&D के लिए वित्त मंत्री कितने संसाधन का आवंटन करती हैं।
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