आर्थिक विकास की प्रक्रिया के लिए एक न्यूनतम जनसंख्या और निश्चित भौगोलिक क्षेत्र की आवश्यकता होती है। इस सामूहिकता का नाम ही राष्ट्र-राज्य है। जो कि राजनैतिक अवधारणा है लेकिन इसके आर्थिक आयाम प्रमुख हैं। बढ़ते आर्थिक असमानता, डिजिटल डिवाइड, जलवायु परिवर्तन और नक्सलवाद जैसी चुनौतियों के संदर्भ में बजट 2022-23 में आर्थिक विकास और कौशल निर्माण जैसे मुद्दों पर बजटीय आवंटन बढ़ाए जाने की आवश्यकता है।
आर्थिक विकास की अवधारणा वृद्धिशील रही है। मतलब यह है की इसमें समय-काल के सापेक्ष वृद्धि देखी जा सकती है। आरंभिक अर्थशास्त्र में इसे आर्थिक संवृद्धि(कुल में वृद्धि) से देखा गया बाद में इसमें जीवन के मानक के आयाम जुड़ गए। वर्तमान में यह अवधारणा समाजशास्त्र, राजनीतिविज्ञान, और मनोविज्ञान के आयामों को अपने में शामिल कर चुकी है। आरंभ में जितने भी आर्थिक सिद्धांत या मॉडल गढ़े गए वे इंसान को तार्किक मानकर चलते थे। ये सिद्धांत लक्षित परिणाम पाने में असफल रहे। वर्तमान समय में यह मान कर चला जा रहा है कि मनुष्य अतार्किक है और उसके निर्णयों को प्रभावित किया जा सकता है
नीतियों मे सुधार एक बहुआयामी प्रक्रिया है जिसमें सभी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक प्रक्रियाएं अपनी भूमिका अदा करतीं हैं। वर्तमान राजनैतिक व्यवस्थाओं में लोकतंत्र इन प्रक्रियाओं के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील होता है और सामूहिक हितों की ओर नीतियों को लेकर के बढ़ता है। कुल में वृद्धि यानि जीडीपी ग्रोथ आधारित नीतियों के कारण लंबे समय में पाया गया की इसका लाभ कुछ ही लोगों को मिल रहा है। यह असमानता राष्ट्र-राज्य के स्थायित्व के लिए ठीक नहीं है। असमानता घातक होती है जो राजनैतिक गलियारों से होकर क्रांति का रूप ले लेती है (जैसे नक्सलवाद)। इस कारण से नीतियाँ ऐसी होनी चाहिए जो अधिकतम लोगों के अधिकतम कल्याण(उपयोगितावाद) को बढ़ावा दे।
वर्तमान में सरकारी नीतियों के अंतर्गत जिन आयामों को ध्यान में रखा जाता है। वे सभी आर्थिक विकास की वृहत अवधारणा के अंतर्गत आते हैं। इस वृहत अवधारणा में कुल की वृद्धि, लैंगिक आयाम, उत्पादक मानव, पर्यावरण जैसे सभी आयामों को शामिल किया जाता है। लेकिन शुरुआत में ऐसी अवधारणा नहीं थी। आरंभिक समय में सारा जोर व्यक्ति के अधिकतम उत्पादन करने में दिया जाता था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1930 की आर्थिक महामंदी ने वैश्विक अर्थशास्त्र के वैचारिक आधारों को बदल डाला। इस दौर में समष्टि अर्थशास्त्र का जन्म हुआ। आगे के दशकों में यह महसूस किया गया कि कुल की वृद्धि एक बड़े वर्ग को मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित कर दे रही है। इस कारण वितरणमूलक मूलक संवृद्धि का नारा दिया जाने लगा। इसके बाद के दौर मे महिलावाद की दूसरी लहर और मानव विकास दृष्टिकोण ने विकास की अवधारणा को बदल डाला। लैंगिक बजटिंग, स्वास्थ्य, शिक्षा की ओर विशेष ध्यान, व्यक्ति की स्वतंत्रता को विशेष महत्व आदि पर आगे की नीतियों पर ध्यान दिया जाने लगा। 1980 के दशक के अंत में पर्यावरणीय चिंताएं बढ़ने लगी। रियो-डी-जेनेरिओ जहां पर हमारा साझा भविष्य नाम से सक्रिय प्रयास शुरू किए गए। यहाँ से नीतिगत चिंताओं में सतत विकास को ध्यान में रखा जाने लगा।
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